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कविता

पहले जैसा

बृजनाथ श्रीवास्तव


हाँ, अनादि!
अब कहाँ रहा जुग
           पहले जैसा।

पहले घर-घर आम्र मंजरी
की पूजा करते थे
एक पेड़ की शाखें जैसी
सब मिलकर रहते थे

स्नेहिल मन !
वह लोक कहाँ हैं
           पहले जैसा।

पहले वाली हवा बसंती
हुई आज जहरीली
गंगाजल की जगह सभी ने
देखो मदिरा पी ली

नेम-धरम
की जगह जरूरत
           केवल पैसा।

सहे सभी ने सुख दुख मिलकर
उत्सव थे गलबाँही
गली, मुहल्ले नाम धरे थे
पर थी आवाजाही

हाल-चाल
अब नहीं पूछते
           पहले जैसा।


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